ऑस्ट्रेलिया के फ्लिंडर्स विश्वविद्यालय के एक नए अध्ययन में सामने आया है कि वृद्धाश्रमों में काम करने वाले देखभाल कर्मी, वहां रहने वाले वृद्धों की मौत को केवल एक सामान्य घटना नहीं मानते बल्कि उसे गहरी व्यक्तिगत क्षति के रूप में महसूस करते हैं। अक्सर उनका यह दुख समाज और संस्थान समझ नहीं पाते, जिससे उनका भावनात्मक बोझ और बढ़ जाता है। ऑस्ट्रेलिया में 85 वर्ष से अधिक आयु के लगभग 50% लोग वृद्धाश्रमों में अपनी अंतिम सांस लेते हैं। देखभाल कर्मी न केवल भोजन, दवा और स्नान जैसी सेवाएँ देते हैं, बल्कि लंबे समय तक रहने वाले वृद्धों के साथ सार्थक रिश्ते भी बना लेते हैं।
जब उनकी मृत्यु होती है, तो यह कर्मियों के लिए परिवार जैसा नुकसान बन जाता है। कई कर्मियों ने अध्ययन में बताया कि वे आंसू बहाते हैं क्योंकि महीनों या वर्षों से उन्होंने उन लोगों के साथ जीवन साझा किया होता है। कर्मियों ने यह भी दुख जताया कि कई बार वृद्धों को अस्पताल ले जाया जाता है और वहीं उनकी मृत्यु हो जाती है। ऐसे में वे उन्हें अलविदा तक नहीं कह पाते। एक कर्मी ने कहा “अस्पताल से अक्सर हमें सूचना तक नहीं मिलती।” कई बार उन्हें परिवारों और प्रियजनों को भी सांत्वना देनी पड़ती है, जबकि वे खुद शोक में होते हैं।
बार-बार मौत देखने से कर्मियों में संचयी शोक (cumulative grief) और मानसिक तनाव बढ़ जाता है। एक कर्मी ने कहा “कभी-कभी हम रोबोट जैसे हो जाते हैं, क्योंकि लगातार मौतों को देखना भावनात्मक रूप से थका देता है।” स्टाफ की कमी और काम का बोझ इस तनाव को और बढ़ा देता है। विशेषज्ञों का मानना है कि वृद्धाश्रमों को चाहिए कि वे अपने कर्मियों को भावनात्मक सहयोग दें। मृत्यु के बाद कर्मियों से बातचीत करना और उनके दुख को स्वीकारना जरूरी है। आत्म-देखभाल जैसे अवकाश, शारीरिक गतिविधियां और सहकर्मियों से मेलजोल को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। परिवारों और समुदाय को भी समझना होगा कि वृद्ध-देखभाल कर्मियों के लिए मौत एक व्यक्तिगत क्षति होती है।