नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय अदालतों द्वारा बरी करने के मामले में हस्तक्षेप करने को लेकर टिप्पणी की है और कहा है कि अपीलीय अदालतों को केवल उन दुर्लभ मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिए जहां पिछली अदालतों का दृष्टिकोण स्पष्ट न हो या फिर जहां रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य केवल दोष के अपरिहार्य निष्कर्ष पर ही ले जाते हैं।
न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति पीबी वराले की पीठ ने शुक्रवार को जारी फैसले में कहा, “कानून में यह स्पष्ट रूप से स्थापित है कि बरी किए जाने के खिलाफ अपील में हस्तक्षेप केवल तभी किया जाना चाहिए जब निचली अदालत द्वारा लिया गया दृष्टिकोण अलग हो या जब कोई दृष्टिकोण संभव न हो।”
क्या है मामला?
दहेज हत्या के एक मामले में आरोपी पांच लोगों को बरी किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने रेखांकित किया कि अगर निचली अदालतों के निष्कर्ष उचित रूप से संभव है और सबूतों से समर्थित है, तो अपीलीय हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है।
अदालत ने यह टिप्पणी एक व्यक्ति द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए की, जिसमें अपनी बहन के पति और ससुराल वालों को बरी किए जाने को चुनौती दी गई थी, जिन पर दहेज की मांग को लेकर हत्या करने का आरोप था।
कब हुई थी महिला की मौत?
अक्टूबर 2024 में अपने फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के बहनोई अजीत सिंह और उनके परिवार के चार सदस्यों को याचिकाकर्ता की बहन सुचिता सिंह की मौत के सिलसिले में बरी करने के ट्रायल कोर्ट के 2014 के फैसले को बरकरार रखा था, जिनकी शादी के दो साल से भी कम समय बाद अक्टूबर 2010 में गाजियाबाद में अपने ससुराल में सुचिता सिंह ने आत्महत्या कर ली थी।
वरिष्ठ अधिवक्ता सोनिया माथुर द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि उनकी बहन को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था और उसकी मौत लगातार दुर्व्यवहार का परिणाम थी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने मामले को फिर से खोलने में कोई योग्यता नहीं पाई, यह देखते हुए कि ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों ने आरोपियों को बरी करने के लिए विस्तृत कारण बताए थे और निष्कर्षों में कोई कानूनी कमी नहीं थी।
अदालत की टिप्पणी
रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों का हवाला देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि मृतका के पति अजीत सिंह ने घटना के तुरंत बाद महिला के मायके वालों को सूचित कर दिया था। मृतका के पिता, जो पुलिस उपाधीक्षक थे, उनकी मौजूदगी में जांच की कार्यवाही और दाह संस्कार किया गया। फिर भी जांच के समय कोई संदेह या आपत्ति नहीं जताई गई।
अदालत ने कहा कि मामले में एफआईआर मौत के चार दिन बाद दर्ज की गई, जिससे ट्रायल कोर्ट के अनुसार आरोपों की सत्यता पर गंभीर संदेह पैदा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के निष्कर्षों का हवाला देते हुए कहा कि देरी से संकेत मिलता है कि रिपोर्ट में बताई गई कहानी बाद में लिखी गई कहानी के अलावा कुछ नहीं थी।