Friday, June 20, 2025
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तीसरे डॉन से पहले देखिए फरहान अख्तर के ‘बच्चा डॉन’, गजराज और शबाना के कंधों पर टिकी सीरीज

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केमिस्ट्री की पढ़ाई करने या कराने वाला कोई शख्स अगर केमिकल्स का जुगाड़ कर ले, कहीं वीराने में इन्हें ‘पकाकर’ कुछ ऐसा बनाने में कामयाब हो जाएं जिसकी कीमत देश-विदेश में सोने से भी महंगी हो और इस सबके पीछे जिसका दिमाग काम कर रहा हो, उसकी फैमिली लाइफ अच्छी खासी डिस्टर्ब हो, कहानी की ये लॉग लाइन सुनकर आपको कुछ याद आता है क्या? जी हां, ओटीटी पर नशीले पदार्थों के सेवन, इनके निर्माण और इनके कारोबार पर बनी सबसे लोकप्रिय सीरीज ‘ब्रेकिंग बैड’ की कहानी एक लाइन में यही है। घर में नोटों को छिपाने की जद्दोजहद चल रही हो, घर का दूसरा सदस्य आकर कुछ ऐसा कर दे कि नोट हवा में उड़ने लगें, ‘ब्रेकिंग बैड’ का ये सीन तो आपको याद ही होगा। नशा करने की कहानियों पर बनी फिल्मों और सीरीज का ऐसा ही एक घोल तैयार किया है, फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी की कंपनी एक्सेल एंटरटेनमेंट ने नेटफ्लिक्स के लिए बनाई अपनी पहली फिक्शन सीरीज ‘डब्बा कार्टेल’ में।

नाम सुनकर पहला आभास यही होता है कि ये सीरीज मुंबई के डिब्बा वालों की जिंदगी में घुस आए नशा कारोबार पर बनी होगी, लेकिन गनीमत है कि दुनिया भर में अपनी कर्तव्यनिष्ठा के लिए मशहूर रहे मुंबई के डिब्बा वालों को इससे दूर ही रखा गया है। वेब सीरीज बनाने वालों ने ये पूरी मेहनत जिस लिए भी को लेकिन इसका सामाजिक परिवेश बहुत गड़बड़ है। सास-बहू मिलकर नशीले पदार्थों का कारोबार कर सकती हैं, ये आप ‘सास, बहू और फ्लेमिंगो’ में पहले ही देख चुके हैं। हां, शबाना आजमी और शालिनी पांडे की सास-बहू की जोड़ी यहां बेहतर है। बेटालाल के किरदार में भूपेंद्र जड़ावत हैं। भगवान ऐसा भोला पति सबको दे जिसको यही नहीं समझ आ रहा कि उसकी जर्मनी यात्रा के लिए मोटी रकम जुटा रही उसकी बीवी कर क्या रही है? सीरीज का एक सीन खासतौर से नोट करने लायक है और वह है सोसाइटी के गणपति उत्सव कार्यक्रम में छोटे छोटे बच्चों को ‘डॉन’ की पोशाक पहनाकर शाहरुख खान वाला सिग्नेचर पोज बनवाना और उनसे गवाना, ‘मुझको पहचान लो, मैं हूं कौन..!’ गांधी, नेहरू, बोस का रूप धरकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आने वाले बच्चों के लिए ये नया ‘आदर्श’ फिल्म कंपनी एक्सेल एंटरटेमेंट के कर्ता-धर्ताओं फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी ने गढ़ा है जो महीनों से इस फ्रेंचाइजी की अगली फिल्म के लिए रकम का जुगाड़ करते घूम रहे हैं। और, हाल ही में जापानी एनीमेशन फिल्म ‘रामायण’सिनेमाघरों में बहुत ही खराब हिंदी सब टाइटल्स के साथ रिलीज कर चुके हैं।

खैर, उनकी बिल्ली है, वह जहां चाहें म्याऊं कराएं लेकिन आधा दर्जन लिक्खाड़ों ने मिलकर जो सीरीज ‘डब्बा कार्टेल’ रची है, उसे देखना काफी धैर्य का काम है। पहले ये सीरीज शोनाली बोस बनाने जा रही थीं, उनके घर पर महीनों तक इसकी कास्टिंग चलती रही। सीरीज का यूएसपी बस इतना सा है कि अपने-अपने काम में परेशान चल रही कोई आधा दर्जन महिलाएं एपिसोड दर एपिसोड एक ऐसे कारोबार में कुछ अपनी मजबूरी और कुछ अपने ‘एडवेंचर’ के चलते जुड़ती चली जाती हैं, जिसकी गंभीरता का उनको पहली बार अंदाजा तब होता है जब इनकी ‘मैनेजर’ के बॉयफ्रेंड की गर्दन रेत दी जाती है। एक नेता का रंगरूट इनसे किलो के भाव नशा बिकवा रहा है और ये सब डब्बा डिलीवरी का स्टार्ट अप खोलकर ‘मस्त’ हैं। उधर, दवाओं पर नकेल कसने वाले संगठन का एक बुजुर्ग अफसर इलाके की एक फीमेल दारोगा के साथ मिलकर उस मामले की तफ्तीश में लगा है जिसमें प्रतिबंधित दवा खाकर लोगों का बोलो ही राम हो राम हो रहा है। मामला एक कंपनी से जुड़ा है, जिसकी जड़ें दूर तक फैली हैं।
सीरीज ‘डब्बा कार्टेल’ एक्सेल की ही सीरीज ‘मिर्जापुर’ का फीमेल वर्जन भी कहीं कहीं लगती है। लेकिन, कालीन भैया जैसी काशी, इसकी लीड अदाकारा शबाना आजमी बन नहीं पाती हैं। एक तो शुरू के चार एपिसोड तक काशी की कलाकारी ही सामने नहीं आती है और पांचवें एपिसोड से जब मामला बड़ी लाइन से छोटी लाइन पर लपकता दिखता है तब तक तमाम दर्शक मन ही मन अपनी अलग ही कहानी ‘पका’ चुके होते हैं। शालिनी पांडे ने यशराज फिल्म्स की ‘महाराज’ और उसके पहले जी5 की फिल्म ‘बमफाड़’ ने अच्छा काम करके हिंदी सिनेमा के दर्शकों में एक उम्मीद बंधाई है। उम्मीद उनसे ये की जा सकती है कि वह ‘डब्बा कार्टेल’ जैसी सीरीज में अपने टैलेंट को यूं ही ‘एमडीएम’ की तरह पानी में नहीं बहाती रहेंगी। निमिषा सजायन को देखकर हिंदी फिल्में और वेब सीरीज बनाने वालों की जहनियत भी साफ होती है। इनके लिए घरेलू सहायिका का रंग दबा हुआ होना जरूरी है। किसी गोरी हीरोइन को घरेलू मेड क्यों नहीं बनाया जाता? इस पर सिनेमा पर शोध करने वाले किसी विद्यार्थी को गौर करना ही चाहिए। अनिता आनंद और साई तम्हणकर के हवाले नेटफ्लिक्स की लेस्बयिन सोसाइटी को संभालने की जिम्मेदारी है, दोनों ‘सुबह के नाश्ते’ पर ये जिम्मेदारी पूरी करते चलते हैं।

वेब सीरीज ‘डब्बा कार्टेल’ कॉन्सेप्ट और क्रिएशन के स्तर पर कमजोर सीरीज है। इसकी लिखावट में दूसरी सीरीज व फिल्मों के इतने ज्यादा ‘इंस्पिरेशन’हैं कि एक्सेल की इसी शुक्रवार रिलीज फिल्म ‘सुपरबॉयज ऑफ मालेगांव’ का वह संवाद बार बार याद आता रहता है, ‘ओरिजिनल का मतलब भी जानता है तू..?’ लेकिन, ये सीरीज अलग है, वह फिल्म अलग है। कंपनी हालांकि एक ही है तो अब तुम ही बताओ कि हम बतलाएं क्या जैसा कुछ मामला इसका बन चुका है! सीरीज का निर्देशन और बहका बहका सा है। घर का लाडला बिगड़ने के क्रम में हैं। अपनी ससुराल जाकर टैम्पो में गणपति ले आया है। स्पीकर में उसने ‘माल’ छुपाया है और इस सारे टेंशन को फिल्माने में जिस ‘नादानी’ से हितेश मेहता ने कैमरा घुमाया है, वह उनकी ही कमजोरी दिखाता है। जहां कभी भी इस सीरीज में थोड़ा बहुत ठीक ठाक ड्रामा डेवलप होता दिखता है, वहीं इसका निर्देशन इसका आयोडीन हवा में उड़ा देता है। सिनेमैटोग्राफी, संपादन और संगीत भी सीरीज का औसत दर्जे का ही है।

एक औसत सी सीरीज ‘डब्बा कार्टेल’ में इसे देर तक देखते रहने का दम मिलता है तो इसके कमाल के कलाकार गजराज राव के चलते। गजराज राव पंजाब से लेकर दिल्ली के भगीरथ पैलेस तक जिस अंदाज से दवाओं के इस मामले की तफ्तीश करते चलते हैं, वह उन सबको देखना चाहिए जो अभिनय के शुरुआती सबक सीख रहे हैं। गजराज राव का ये किरदार ये भी बताता है कि किसी कलाकार को एक किरदार में खो जाने के लिए न सिर्फ सही देह भाषा अख्तियार करनी जरूरी है बल्कि कहानी के साथी किरदारों से उसके संवाद की भी कितनी अहमियत होती है। काश, ऐसी ही मेहनत इस सीरीज के लिए जिशू सेनगुप्ता और ज्योतिका ने भी की होती। ड्रग्स, अंडरवर्ल्ड, पुलिस, प्रशासन और फैमिली के घालमेल की कहानियों में ‘मिर्जापुर’के बाद एक नई लकीर खींचने का एक्सेल के पास ये बड़ा मौका था, लेकिन अपने एलान के पांच साल बाद ओटीटी तक पहुंची, महानगरों और छोटे शहरों के बीच की बस्ती ठाणे में बसी ये कहानी अपनी हाइप के साथ न्याय करने में सफल नहीं रही।
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