1956 में डार्टमाउथ सम्मेलन के दौरान जब पहली बार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शब्द अस्तित्व में आया, तब शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन यह तकनीक शैक्षणिक ईमानदारी और मौलिकता को परिभाषित करने वाली सबसे बड़ी चुनौती बन जाएगी। आज के दौर में जब चैटजीपीटी, जैमिनी, क्लाउडे जैसे जनरेटिव एआई टूल्स किसी भी विषय पर शोधपत्र, उत्तर या प्रस्तुति चंद सेकंड में तैयार कर सकते हैं, तब यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि ज्ञान का श्रेय किसे दिया जाए। मानव मस्तिष्क को या मशीन को? क्या जो लिखा गया वह वास्तव में मौलिक है, या सिर्फ एल्गोरिद्म का उत्पाद?
इन्हीं जटिलताओं और नैतिक उलझनों के बीच आईआईटी दिल्ली ने एक निर्णायक पहल की है। संस्थान ने स्पष्ट रूप से निर्देशित किया है कि शैक्षणिक या शोध कार्य में यदि एआई टूल्स का उपयोग किया गया है, तो उसकी जानकारी देना अनिवार्य होगा। यह कदम न सिर्फ अकादमिक ट्रांसपेरेंसी और ईमानदारी की रक्षा करता है, बल्कि उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए एक नई नैतिक रूपरेखा भी तैयार करता है। जहां तकनीक सहयोगी तो हो सकती है, लेकिन उसकी भूमिका स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए।
आईआईटी दिल्ली के निदेशक प्रो. रंगन बनर्जी का कहना है कि जनरेटिव एआई टूल्स अब छात्रों, शिक्षकों और स्टाफ के बीच तेजी से इस्तेमाल हो रहे हैं। ये टूल्स कई बार सही संदर्भ में जानकारी देने में मददगार साबित होते हैं। लेकिन इनका बढ़ता इस्तेमाल देखकर अब हमें पढ़ाने के तरीके, असाइनमेंट और परीक्षा के डिज़ाइन और मूल्यांकन को नए सिरे से सोचना होगा। आईआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि किसी प्रोजेक्ट में एआई द्वारा बनाए गए चित्र, तालिकाएं, डेटा विज़ुअलाइज़ेशन या महत्वपूर्ण पाठ्यांश शामिल हों, तो इसे कैप्शन या फुटनोट में स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया जाना चाहिए। उपयोगकर्ता यह सुनिश्चित करें कि एआई-जनित कंटेंट सटीक हो, किसी भी तरह से प्लेगराइज़्ड न हो, और किसी संवेदनशील जानकारी का खुलासा न हो। स्रोत सामग्री और मॉडल को उपयोग से पहले सावधानी से जांचें। एआई टूल्स की मदद से तैयार किया गया कोई भी काम या सामग्री पूरी तरह से स्पष्ट की जानी चाहिए, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और अकादमिक ईमानदारी कायम रहे।
विशेषज्ञ कहते हैं कि आज से 30-40 साल पहले जो ज्ञान 10वीं कक्षा में सिखाया जाता था, वह अब 6वीं में पढ़ाया जाता है। नॉलेज की उपलब्धता और ट्रांसफर अब तेज हो गया है। ठीक उसी तरह, एआई ने ज्ञान के प्रसार की गति को और तेज कर दिया है। अब छात्रों के पास वह अवसर है कि वे जानकारी के कई स्रोतों को एकत्रित कर, उसे समेकित करें और उस पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत करें।
ह्यूमिनिली.एआई के को-फाउंडर और गृह मंत्रालय की राजभाषा संबंधी संसदीय समिति के सदस्य ऋषभ नाग कहते हैं कि आज के समय में जब कोई भी छात्र किसी विषय की पढ़ाई करता है, तो वह विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त करता है। पारंपरिक शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम के अनुसार 50 से 100 पुस्तकें दी जाती हैं, जो वे अपनी पढ़ाई के वर्षों में पढ़ते हैं। इन पुस्तकों के माध्यम से वे परीक्षा देते हैं और सफल होते हैं। परंतु आज तकनीक की बदौलत, विशेष रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के आगमन के बाद, छात्रों को अब अतिरिक्त ज्ञान के स्रोत भी उपलब्ध हो गए हैं।
अगर किसी छात्र को अब 50 के बजाय 70 या 80 पुस्तकें या शोधपत्रों से जानकारी मिल जाए, वह भी एक क्लिक पर तो उसमें क्या गलत है? यदि छात्र उस जानकारी को सही तरीके से संदर्भित करता है, जैसे कि रिसर्च पेपर, व्हाइट पेपर, या किसी प्रतिष्ठित स्रोत का हवाला देकर, तो यह पूरी तरह से वैध है। असल में, ज्ञान का विकास इसी तरह से होता है, जानकारी को इकट्ठा कर, समझ कर, और उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत करके।
वह कहते हैं कि हम सभी ने जब पढ़ाई की, तो जानकारी पुस्तकों, शिक्षकों के नोट्स, शोधपत्रों, या अन्य स्रोतों से ली। वही आज का छात्र कर रहा है, फर्क सिर्फ इतना है कि उसके पास एआई जैसे टूल्स की सहायता है, जो जानकारी तक पहुंचने की गति और सटीकता को बढ़ा देते हैं। आज एआई टूल्स छात्रों को न केवल प्रश्नों के उत्तर देने में मदद करते हैं, बल्कि उन्हें सर्वे डिजाइन करने, शोध खोजने, और उन्हें व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने में भी सक्षम बनाते हैं।
नाग कहते हैं कि आज की हायर एजुकेशन का मतलब केवल किताबों और क्लासरूम तक सीमित नहीं रह गया है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां इंफॉर्मेशन की स्प्रेड अनलिमिटेड है। अगर किसी ने हार्वर्ड में कोई रिसर्च की, तो वह भारत का स्टूडेंट भी पढ़ सकता है और उसे पढ़ना भी चाहिए। उसी तरह अगर भारत में कोई रिसर्च हुई, तो सिंगापुर का स्टूडेंट भी उससे लाभान्वित हो सकता है।
शारदा विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इन मेडिसिन, इमेजिंग और फॉरेंसिक्स के प्रोफेसर और हेड डॉ. अशोक कुमार कहते हैं कि आईआईटी दिल्ली का यह फैसला एक अच्छा कदम है। इससे शोध और पढ़ाई में ईमानदारी बनी रहती है। अगर कोई एआई टूल का इस्तेमाल करता है तो उसे बताना जरूरी है। इससे काम में पारदर्शिता आती है और यह दिखाता है कि किसने क्या किया। यह नीति लोगों को सही तरीके से एआई का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है।
जानकारी तथ्यात्मक है तो स्रोत की संख्या या माध्यम महत्वपूर्ण नहीं
नाग कहते हैं कि अगर एक जानकारी किसी किताब से ली गई है, तो वह पुस्तक है। अगर शिक्षक के नोट्स से ली गई है, तो वह व्याख्यान है। अगर किसी शोधपत्र से ली गई है, तो वह अकादमिक अध्ययन है। नाग तर्क देते हैं कि जब तक छात्र उस जानकारी को समझ कर, उसे अपने उत्तर में आत्मसात कर प्रस्तुत कर रहा है और वह उत्तर तथ्यात्मक रूप से सही है, तब तक स्रोत की संख्या या माध्यम महत्वपूर्ण नहीं रह जाता।
इसलिए यह आवश्यक है कि हम ज्ञान के नए साधनों को विरोध करने के बजाय, उन्हें अपनाएं और यह समझें कि एआई अब शिक्षा की प्रक्रिया का एक सहायक माध्यम बन चुका है, प्रतिस्थापन नहीं।
एआई और आम लोगों की सोचने की आदत
नाग कहते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक शक्तिशाली टूल है, परन्तु उसका आउटपुट भी आपके इनपुट, आपकी समझ, और आपकी मेहनत पर निर्भर करता है। यदि कोई सिर्फ एआई से प्राप्त जानकारी को कॉपी-पेस्ट करता है, तो वह सिर्फ ‘यूज़र’ बना रहता है, निर्माता नहीं।
10% लोग ही ऐसे होते हैं जो टूल के साथ समय बिताकर, उसमें डूबकर, उससे कुछ मौलिक निकालते हैं। बाकी 90% लोग आज भी वही करते हैं जो इंटरनेट की शुरुआत के समय करते थे जानकारी को खपत करते हैं, न कि उससे कुछ नया रचते हैं। जो भी टूल इस्तेमाल हो इंटरनेट हो, एआई हो, या कोई अन्य उसका असर इस पर निर्भर करता है कि उपयोगकर्ता उसे कैसे और कितनी समझ के साथ उपयोग करता है। केवल जानकारी जुटा लेना काफी नहीं है, उसे समझना और ढालना ही आज की सबसे बड़ी दक्षता है।
संस्थानों को बनाना चाहिए नियम
डा. अशोक कुमार इस बात से सहमत है कि सभी संस्थानों को ऐसा नियम बनाना चाहिए। इससे यह पता चलता है कि एआई का इस्तेमाल कहां और कैसे हुआ है। इससे नकल और गलत तरीके से उपयोग करने पर रोक लगेगी। इससे छात्र एआई को सही ढंग से सीख पाएंगे और आगे चलकर उसका जिम्मेदार तरीके से इस्तेमाल कर पाएंगे।
टीचर की जिम्मेदारी सिर्फ पढ़ाना नहीं, जानकारी लाना भी
डा. कुमार कहते हैं कि अगर छात्र को बताना पड़े लेकिन शिक्षक को नहीं, तो यह दोहरी नीति होगी। अकादमिक ईमानदारी की नीति सभी के लिए समान होनी चाहिए। शिक्षक शोध की दिशा तय करते हैं, इसलिए उनका पारदर्शी होना और उदाहरण प्रस्तुत करना आवश्यक है। असमान नियमों से संस्थान में अविश्वास का वातावरण बन सकता है और एआई पर खुलकर चर्चा बाधित हो सकती है। समान नियम व्यवस्था में निष्पक्षता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा देते हैं।
येलो स्लाइस के संस्थापक किशोर फोगला कहते हैं कि आईआईटी दिल्ली का यह नया निर्देश कि छात्रों को अपने AI उपयोग की जानकारी देनी होगी, अकादमिक पारदर्शिता और ईमानदारी की दिशा में एक साहसिक कदम है। लेकिन इसमें एक दोहरा मापदंड उभरता है – छात्र अपने ऑनलाइन और डिजिटल सहयोगियों को बताएं, जबकि प्रोफेसर ऐसा नहीं करते। अगर हम अपने शैक्षणिक तरीकों को वास्तव में नवाचारपूर्ण और न्यायसंगत बनाना चाहते हैं, तो सभी के लिए एक समान नियम होने चाहिए।
ऋषभ नाग कहते हैं कि आज एक प्रोफेसर या टीचर का काम सिर्फ एक ही विषय को छह अलग-अलग क्लासेज़ में पढ़ाना नहीं है। उनका जॉब है, खुद को अपडेट रखना, नई रिसर्च ढूंढना और उसे छात्रों तक लाना। क्या डब्ल्यूएचओ ने हेल्थ पर नया डेटा जारी किया? क्या आईएमएफ या विश्व बैंक ने अर्थव्यवस्था को लेकर कोई नई रिपोर्ट दी? क्या एआई या साइबर लॉ पर कोई नई थ्योरी पब्लिश हुई? तो उस जानकारी को एक प्रोफेसर को लाना चाहिए और सबसे ज़रूरी बात यह कि यह उसकी कर्तव्य है। अगर 70 साल पुरानी किताबें ही आज भी पढ़ाई जा रही हैं, तो सवाल बनता है नई जानकारी लाने की जिम्मेदारी किसकी है? जवाब है प्राथमिक रूप से शिक्षक की। आज टीचर के पास इतने रिसोर्सेज़ हैं, रिसर्च जर्नल्स, ओपन फोरम्स, डिजिटल लाइब्रेरीज़, और AI-बेस्ड टूल्स कि अब उन्हें ढूंढने की बजाय “चुनने” की जरूरत है कि क्या सबसे प्रासंगिक है। एआई अब शिक्षक की तेजी से डेटा लाने में, कंटेंट को शॉर्टलिस्ट करने में और उनके लेक्चर के लिए बेहतरीन मैटीरियल तैयार करने में मदद करता है।