Sunday, July 27, 2025
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AI का नया युग: नैतिकता और वैश्विक शक्ति-संतुलन की चुनौती

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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिर्फ कोडिंग एल्गोरिदम और डेटा का खेल नहीं रह गया है। बदलती दुनिया में अब यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या टेक्नोलॉजी नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक विविधताओं को ध्यान में रख रही है। इसी बहस को नया आयाम दिया है भारत ने BRICS मंच पर। ब्राज़ील में हुई ब्रिक्स देशों की संस्कृति मंत्रियों की बैठक में भारत ने साफ कहा कि दुनिया को अब नैतिक AI की ओर बढ़ना होगा जो सिर्फ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं बल्कि सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों के नजरिए से भी काम करे।

बैठक में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने भारत का पक्ष रखते हुए कहा कि AI के युग में हमें एक ऐसा सांस्कृतिक इकोसिस्टम बनाना होगा जो विविधता का सम्मान करें, मानवता को गहराई दे और साझा मूल्यों पर टिके विकास को आगे बढ़ाए। शेखावत का यह बयान साफ तौर पर इस ओर इशारा करता है कि तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ आर्थिक लाभ या भौगोलिक दबदबे के लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे लोगों के बीच समझ, सहिष्णुता और सभ्यता का पुल भी बनाना चाहिए।

नैतिक एआई क्यों आवश्यक है?

AI अब हमारी ज़िंदगी के हर पहलू में घुस चुका है, चाहे वह सोशल मीडिया की न्यूज फीड हो, ऑनलाइन बैंकिंग, हेल्थकेयर या फिर सरकारी नीतियों का निर्धारण। लेकिन इन सबमें एक बड़ी चुनौती है, पूर्वाग्रह, संवेदनशीलता और सांस्कृतिक पहचान। भारत का मानना है कि यदि AI को सही दिशा नहीं दी गई, तो यह संस्कृतियों को मिटाने, सांस्कृतिक वर्चस्व और जानकारी के एकपक्षीय नियंत्रण का उपकरण बन सकता है। भारत ने यह मुद्दा ऐसे वक्त पर उठाया है जब ब्रिक्स देश (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) जियोपॉलिटिक्स के अलावा सांस्कृतिक सहयोग को भी महत्व देने लगे हैं। ब्रिक्स में कुल मिलाकर विश्व की 40% आबादी शामिल है, जिनकी सांस्कृतिक विविधता भी जबरदस्त है।

क्या वैश्विक एआई भारतीय विविधता और संवेदनशीलताओं को समझते हैं?

एआई एंड बियॉन्ड (भारत) और टेक व्हिस्परर लिमिटेड (यूके) के संस्थापक जसप्रीत बिंद्रा कहते हैं कि मैं ऐसा नहीं मानता। भारतीयों की निजता को लेकर सोच काफी भिन्न है, और यह वैश्विक मॉडलों में पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं होती। न केवल निजता, बल्कि सांस्कृतिक और भाषाई बारीकियां भी गायब हैं। स्थानीय मुद्दे, संदर्भ और समस्याएं इन मॉडलों में नहीं दिखते। इनका ज्यादातर प्रीट्रेनिंग डेटा अंग्रेज़ी और पश्चिमी देशों पर केंद्रित होता है, और यही सबसे बड़ा अंतर पैदा करता है।

तक्षशिला फाउंडेशन के रिसर्च एनॉलिस्ट अश्विन प्रसाद कहते हैं कि एआई मॉडल का ज्ञान उसके प्रशिक्षण डेटा (ट्रेनिंग डेटा) से आता है, और यह डेटा अपने भीतर मानवीय पूर्वाग्रह (बायस) लिए होता है। अधिकतर प्रशिक्षण सामग्री जैसे किताबें, लेख, वेबसाइट्स और कोड अंग्रेजी में होते हैं।

इसका सीधा मतलब यह है कि भारत जैसी विविध भाषाओं और संस्कृति वाला देश इन बड़े भाषा मॉडल्स में पूरी तरह से प्रतिनिधित्व नहीं पा सकता। भारतीय संवेदनाएं, रीति-रिवाज और सामाजिक परिप्रेक्ष्य अक्सर इन मॉडलों से गायब रहते हैं।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग का उपयोग कर कारोबार को समाधान प्रदान करने वाली कंपनी स्टेलर इनोवेशंस के बोर्ड चेयरमैन शशि भूषण कहते हैं कि केंद्रीय मंत्री शेखावत की एथिकल एआई पहल का उद्देश्य नवाचार को रोकना नहीं, बल्कि उसे एक नई, सही दिशा देना है। जब एआई के डिज़ाइन में सांस्कृतिक समझ को शामिल किया जाता है जैसे पवित्र प्रतीकों को व्यावसायिक जनरेटिव एआई से फ़िल्टर करनातो यह तकनीक को अरबों लोगों के लिए अधिक उपयोगी और संवेदनशील बना देता है।

हालांकि, जब एआई परंपराओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है, तो यही सांस्कृतिक डिजाइन नैतिक रूप से विवादास्पद हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई विज्ञापनदाता किसी धार्मिक चित्रकला या परंपरागत कलाकृति को केवल प्रचार अभियान के लिए प्रयोग करता है, तो यह सांस्कृतिक अपमान की श्रेणी में आता है।

भारत के पास क्या है रोडमैप ?

अश्विन कहते हैं कि भारत ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं। देश में स्वदेशी एआई इकोसिस्टम तैयार करने के प्रयास हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, IndiaAI मिशन के तहत कई ऐसे स्तंभ शामिल हैं जो देश में एआई के स्वदेशी विकास, उच्च गुणवत्ता वाले डेटा की पहुंच, कम्प्यूटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और जिम्मेदार एआई को बढ़ावा देने से जुड़े हैं।

जसप्रीत बिंद्रा कहते हैं कि भारत ने इस दिशा में फोकस किया है। 2019 के आसपास नीति आयोग द्वारा एआई फॉर ऑल नामक एक पेपर जारी किया गया था। यह दिखाता है कि भारत इस विषय को गंभीरता से ले रहा है, जो कि भारत जैसे देश में बेहद ज़रूरी भी है। हालांकि, अब तक उस फोकस को पूरी तरह नीति और सिद्धांतों में ढाला गया है, ऐसा नहीं लगता।

विभावंगल अनुकूलकारा प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक एवं प्रबंध निदेशक सिद्धार्थ मौर्य कहते हैं कि ब्रिक्स में “नैतिक एआई” को लेकर भारत का ज़ोर पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरुद्ध एक सार्थक चुनौती है विशेष रूप से उस प्रवृत्ति के खिलाफ, जो एआई के ज़रिए दुनिया को एकरूप सांस्कृतिक कथाओं में ढालने की कोशिश करती है। जब एआई मॉडल मुख्यतः एंग्लो-यूरोपीय डेटा पर प्रशिक्षित होते हैं और उन्हीं कथाओं के आधार पर दुनिया को समझाने का प्रयास करते हैं, तो वे भारत की भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता को मिटा देते हैं। यह एक प्रकार का “डिजिटल उपनिवेशवाद” बन जाता है।

हालांकि, भारत स्वयं भी कई नीति-गत खामियों से जूझ रहा है। यदि स्थानीय भाषाओं में प्रामाणिक डेटा सेट, सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा के लिए स्पष्ट कानून, और एआई जनित ग़लत प्रस्तुतियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने जैसे ठोस ढांचे नहीं होंगे, तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाई गई भारत की मांगें केवल औपचारिक प्रतीत होंगी।

नैतिकता और संस्कृति को शामिल करना तकनीकी प्रगति को धीमा करेगा या उसे और समृद्ध बनाएगा?

बिंद्रा मानते हैं कि यह दोनों करेगा। केवल तकनीकी प्रगति के लिए तकनीकी प्रगति मानवता के लिए ठीक नहीं है। इसमें मानवीय मूल्य, नैतिकता और सिद्धांतों का समावेश होना चाहिए। अगर नैतिकता और संस्कृति को शामिल करने के लिए तकनीकी प्रगति की रफ्तार थोड़ी धीमी भी हो जाए, तो भी यह सही रास्ता होगा। ऐसी तकनीक ही मानवता को लाभ पहुंचाएगी। इसके विपरीत, बिना मूल्यों और नैतिकता के अनियंत्रित तकनीकी विकास एक तरह का कैंसर साबित हो सकता है। अश्विन कहते हैं कि मेरा मानना है कि यह तकनीकी प्रगति को धीमा नहीं करेगा। अंततः, नैतिक रूप से सही और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील एआई पर लोगों का भरोसा ज़्यादा होगा और इसे व्यापक रूप से अपनाया जाएगा। वास्तव में यह विविध सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्यों में ज्यादा उपयोगी साबित हो सकता है। इसलिए बाज़ार में ऐसी मांग स्वतः मौजूद है, जो कंपनियों को इस दिशा में सोचने और कदम उठाने के लिए प्रेरित करती है।

अश्निन इस मामले में तर्क देते हैं कि मेरे विचार में ये चिंताएं कुछ हद तक अतिरंजित हैं, कम से कम प्रत्यक्ष रूप में। लेकिन एलएलएम जिस तरह से ‘सोचते हैं, उस प्रक्रिया में अंतर्निहित पूर्वाग्रह होते ही हैं। यह पक्षपात सूक्ष्म हो सकता है, लेकिन जैसे-जैसे हम इस तकनीक पर निर्भर होते जाएंगे, ये स्थानीय संस्कृति और मूल्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं या धीरे-धीरे मिटा सकते हैं।

पश्चिमी एआई मॉडल डिजिटल उपनिवेशवाद दे रहा बढ़ावा

बिंद्रा कहते हैं कि अनजाने में ही सही, लेकिन यह हो रहा है। अधिकतर एआई मॉडल पश्चिमी संस्कृति, भाषा और परंपराओं को प्रतिबिंबित करते हैं, और इन्हें विकासशील देशों में भी अपनाया जाता है। यह निश्चित तौर पर एक तरह का डिजिटल उपनिवेशवाद है। यह केवल एआई मॉडल्स के साथ नहीं, बल्कि सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के साथ भी देखा गया है।

भारत को आवश्यकताओं के अनुरूप खुद को ढालना होगा

जहां तक भारत के लिए इस चुनौती का मुकाबला करने की बात है तो भारत को आवश्यकताओं को समझना होगा। अश्विन प्रसाद कहते हैं कि इसका आंशिक उत्तर बाजार में ही छिपा है। भारत एक बहुत बड़ा उपभोक्ता बाज़ार है और इसलिए इन एलएलएम के लिए भारत की जरूरतों को समझना और हमारी संवेदनाओं के अनुरूप ढलना जरूरी होगा। वह कहते हैं कि भारत को स्वयं भी इस एआई इकोसिस्टम का एक प्रमुख भागीदार बनना चाहिए। हमें नवाचार करना चाहिए, उत्पादन बढ़ाना चाहिए और वैश्विक एआई तकनीकी परिदृश्य में एक सशक्त खिलाड़ी बनना चाहिए। हमारे पास विशाल सॉफ्टवेयर टैलेंट है। सही निवेश और बहुभाषी एआई को बढ़ावा देकर हम न केवल अपनी अर्थव्यवस्था को आगे ले जा सकते हैं, बल्कि उपरोक्त समस्याओं का समाधान भी निकाल सकते हैं। जैसे-जैसे एआई प्रणालियों द्वारा लिए गए निर्णयों का प्रभाव बढ़ेगा, वैसे-वैसे जिम्मेदारी तय करने के लिए साफ-सुथरे ढांचे भी बनेंगे। उदाहरण के लिए, अब तो बीमा कंपनियां एआई-त्रुटि से होने वाले नुकसान को कवर करने की योजना भी बना रही हैं।

किसकी जिम्मेदारी

जब एआई-जनित कंटेंट से सांस्कृतिक रूप से गलत चित्रण होता है, तो जिम्मेदारी किसकी होगी, डेवलपर, नीति निर्माता या समाज की? इस प्रश्न के उत्तर में बिंद्रा कहते हैं कि यह एक बहुत ही जटिल प्रश्न है, जिसका उत्तर पूरी तरह प्रसंग, सामग्री और समय पर निर्भर करता है। सामान्यतः यह जिम्मेदारी उस कंटेंट के रचयिता की होनी चाहिए। लेकिन अगर उस कंटेंट के खिलाफ कोई कानून नहीं है और समाज भी उसे स्वीकार कर रहा है, तो तीनों रचनाकार, नीति निर्माता और समाज-जिम्मेदार माने जाएंगे। अश्निन कहते हैं कि यह एक साझा जिम्मेदारी है। इसमें सभी पक्षों की भूमिका बनती है। शशि भूषण कहते हैं कि ज़िम्मेदारी केवल एआई डेवलपर्स की नहीं है, बल्कि नीति-निर्माताओं और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की भी है। नीति-निर्माताओं को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो सांस्कृतिक पक्षपात से बचाएं, और एआई प्लेटफॉर्म्स को ऐसे डिज़ाइन तैयार करने होंगे जो वैश्विक विविधताओं को सम्मान दें।

क्या विविध और नैतिक एआई से ग्लोबल साउथ की आवाज़ मजबूत होगी?

बिंद्रा इसे सकारात्मक मानते हुए कहते हैं कि यही आशा है। इस दिशा में बहुत काम किया जाना बाकी है। हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो एआई रेगुलेशन को भी समझते हों और भारतीय मूल्य प्रणाली में भी गहराई से रचे-बसे हों। उदाहरण के लिए, मैंने हाल ही में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एआई, एथिक्स एंड सोसाइटी में मास्टर्स पूरा किया। वहां यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एआई नैतिकता से जुड़े लगभग सभी मुद्दे पश्चिमी दार्शनिक सिद्धांतों से ही हल किए जा रहे थे। भारतीय या पूर्वी (चीन को छोड़कर) सोच की कोई झलक तक नहीं थी। मेरे शोध का विषय “अद्वैत वेदांत” था और यह कि भारत में लोग डेटा और एआई में निजता को कैसे देखते हैं। मुझे लगता है कि इस दिशा में और ज्यादा अकादमिक काम होना चाहिए ताकि ग्लोबल साउथ की आवाज़ एआई नैतिकता के विमर्श में सशक्त हो सके।

शशि भूषण मानते हैं कि भारत का ब्रिक्स समूह में सशक्त प्रवेश एक दूरदर्शी रणनीतिक निर्णय था। इससे भारत उन देशों की कतार में खड़ा हुआ है, जो एआई डिज़ाइन से जुड़ी सांस्कृतिक पहचान के क्षरण के खतरे का सामना कर रहे हैं। साथ ही, यह पश्चिमी देशों के एकतरफा एआई प्रभाव को चुनौती देता है और भारत को वैश्विक एआई नीति के निर्माण में एक सशक्त नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करता है।

अश्विन का मानना है कि ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस तरह की चर्चाएं होना बेहद ज़रूरी है। इससे देशों को विचार-विमर्श करने और कुछ अहम मसलों पर व्यापक सहमति तक पहुंचने में मदद मिलती है। वे मुद्दे जो भविष्य में एआई गवर्नेंस (शासन) के दौरान प्रमुख बहस का हिस्सा बन सकते हैं। ब्रिक्स जैसे मंच ग्लोबल साउथ को वैश्विक नीति निर्माण में अपनी भूमिका मजबूत करने का अवसर देते हैं।

सिद्धार्थ मौर्या कहते हैं कि सांस्कृतिक समानता की बात करना पर्याप्त नहीं है, इसे व्यवहार में उतारना ज़रूरी है। ‘नैतिक एआई’ केवल जागरूकता का विषय नहीं है, बल्कि इसके लिए भारत को ठोस निवेश करना होगा। ऐसे भारतीय एआई मॉडल्स में, जो देशी ग्रंथों, भाषाओं और संदर्भों पर आधारित हों। साथ ही, डेटा ट्रांसपेरेंसी की मांग और ब्रिक्स मंच का उपयोग करके वैश्विक दक्षिण के अनुसार एआई गवर्नेंस मॉडल तैयार करना होगा।

भारत का एआई पर रुख: वैचारिक पहल या रणनीतिक नेतृत्व?

अश्विन कहते हैं कि वैचारिक रूप से भारत हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों का पक्षधर रहा है। एक सांस्कृतिक रूप से विविध देश होने के नाते, जो एक परिवर्तनकारी तकनीक के साथ जुड़ रहा है, भारत की वैचारिक जिम्मेदारी बनती है कि वह इस वैश्विक परिवर्तन में अपनी उपस्थिति और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करे। रणनीतिक रूप से, भारत की यह कोशिश है कि वह उन वैश्विक मंचों पर अपनी सीट सुनिश्चित करे जहां एआई गवर्नेंस की रूपरेखा तैयार हो रही है। इन मुद्दों की अगुवाई कर भारत एक वैचारिक लीडर की भूमिका में आ सकता है। यह नेतृत्व स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है।

अब असली कसौटी यह होगी कि क्या भारत केवल कूटनीतिक मंचों तक सीमित रहेगा, या फिर जमीनी स्तर पर, स्थानीय संदर्भों से जुड़ी वास्तविक पहल के साथ ‘एआई फॉर भारत’ मॉडल को साकार करेगा। एक ऐसा मॉडल जो सिर्फ आर्थिक विकास का जरिया न हो, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की भी सुरक्षा करे।

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