करीब सात वर्ष तक इंतजार के बाद एक दिन डीएकेएमएस के बोन मैरो रजिस्ट्री से डोनर मिलने की सूचना आई। उस दिन उनकी पत्नी का जन्मदिन था। एक मां के लिए यह जन्मदिन का अनमोल उपहार था। रोहित उनके बेटे के लिए भगवान बनकर सामने आए।
रोहित कानपुर के रतन लाल नगर के रहने वाले हैं। उनके पिता व्यवसायी हैं। उन्होंने मणिपाल विश्वविद्यालय से बी. फार्मा व सिंबायोसिस से एमबीए की पढ़ाई की है और गुरुग्राम में एक फार्मा मैनेजमेंट कंपनी में प्रबंधक के तौर पर कार्यरत हैं। उन्होंने बताया कि वह 12वीं की पढ़ाई पूरी होने के से ही हर तीन माह के अंतराल पर रक्तदान करते थे। कैलेंडर में 120 दिन का रिमाइंडर लगाकर रखते थे।
बॉलीवुड की फिल्म ”द स्काई इज पिंक” फिल्म देखकर बोन मैरो दान करने की प्रेरणा मिली। फिल्म में दिखाया गया था कि एक लड़की को एससीआइडी (सीवियर कंबाइंड इम्यूनोडेफिशिएंसी) व सिस्टिक फाइब्रोसिस जेनेटिक बीमारी थी। उसे भी बोन मैरो प्रत्यारोपण की जरूरत थी लेकिन डोनर नहीं मिलने से उसकी मौत हो जाती है। उसी फिल्म से डीकेएमएस बोन मैरो प्रत्यारोपण रजिस्ट्री की जानकारी मिली और तुरंत उन्होंने डोनर के रूप में पंजीकृत किया।

ऐसे मरीज को मिला डोनर

डोनर के लिए पीड़ित बच्चे का एचएलए (ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन) प्रोफाइल डीकेएमएस बोन मैरो प्रत्यारोपण रजिस्ट्री में उपलब्ध था। इस रजिस्ट्री से रोहित के पंजीकरण कराने के बाद उसके पास एक जांच किट भेजी गई। उन्होंने अपने मुंह से स्लाइवा का सैंपल लेकर वापस भेज दिया। डीकेएमएस ने उस सैंपल में एचएलए जांच कराई। उनका एचएलए उस बच्चे से मैच करने पर उनके पंजीकरण कराने के कुछ महीने बाद ही बोन मैरो दान करने के लिए अनुरोध भेजा गया।

रोहित ने बताया कि फोन आने पर पता चला कि उनका कोई जनेटिक जुड़वा है, जिसे उनकी मदद की जरूरत है। लोगों को गलत धारणा है कि यह बहुत जटिल प्रक्रिया है। उन्हें बोन मैरो दान से पहले पांच दिन इंजेक्शन लगे थे लेकिन दान करने के बाद वह अगले दिन ही भ्रमण पर निकल गए थे।

मां बोली रोहित जिद्दी है, मन में आया तो करके ही मानेगा

उन्होंने बताया कि जब बोन मैरो दान करने के फैसले की जानकारी तब उनके पिता सुनील कुमार लखमानी और कीर्ति लखमानी को पता चली तो मां ने बोली की रोहित बहुत जिद्दी है, मन में आया है तो करके ही मानेगा। फार्मेसी की पढ़ाई करने के नाते वह जानते थे कि उनके बोन मैरो दान करने से किसी की जिंदगी बच सकती है। उनके बोन मैरो दान करने से बच्चे के ठीक होने के बाद रोहित के माता-पिता भी खुश हैं।

बच्चे का इलाज करने वाले सीएमसी वेल्लोर के हेमोटोलाजी के प्रोफेसर डा. विक्रम मैथ्यू ने कहा कि बोन मैरो प्रत्यारोपण के बाद बच्चे का सिर्फ ब्लड ग्रुप बदला है। इसके अलावा कोई जनेटिक बदलाव नहीं आया है। भारत में डोनर मिलने की संभावना महज 10-20 प्रतिशत होती है। इस वजह से 42 वर्षों में डोनर से देश में 17,651 बोन मैरो प्रत्यारोपण हुए हैं। इसमें 27 प्रतिशत (करीब 4765) ही थैलेसीमिया मरीज शामिल हैं। किसी दूर के व्यक्ति के दान से करीब 1500 प्रत्यारोपण हो पाए हैं। जबकि अमेरिका में 75-80 प्रतिशत डोनर मिलने की संभावना रहती है।
वैशाली स्थित मैक्स अस्पताल के हेमेटाेलाजी की विशेषज्ञ डा. ईशा कौल ने बताया कि देश में करीब डेढ़ लाख थैलेसीमिया के मरीज हैं। हर वर्ष करीब दस हजार बच्चे थैलेसीमिया मेजर बीमारी के साथ जन्म लेते हैं। जिन्हें बार-बार ब्लड चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। इसका स्थायी इलाज बोन मैरो प्रत्यारोपण है। इसके लिए मरीज और डोनर का एचएलए मैच करना आवश्यक होता है। 20 से 30 प्रतिशत मरीजों को ही परिवार में डोनर मिल पाते हैं। माता-पिता दोनों थैलेसीमिया माइनर हों तो बच्चे को थैलेसीमिया बीमारी होने की संभावना 25 प्रतिशत रहती है। शादी से पहले एचपीएलसी जांच से यह पता लाया जा सकता है।
डीकेएमएस इंडिया के चेयरमैन पैट्रिक पाल ने बताया कि जर्मनी छोटा देश होने के बावजूद वहां 60 लाख डोनर पंजीकृत हैं। भारत में वर्ष 2019 में काम शुरू किया। यहां अब तक पांच लाख डोनर ही पंजीकृत हैं। इस वजह से मरीज को जल्दी डोनर नहीं मिल पाते।