इतिहास बताता है कि टैरिफ युद्ध केवल अल्पकालिक लाभ देते हैं, लेकिन दीर्घकालिक रूप से अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक होते हैं। 1930 के स्मूट-हॉले टैरिफ से लेकर आधुनिक यूएस-चीन ट्रेड वॉर तक, संरक्षणवादी नीतियों ने आर्थिक अस्थिरता और व्यापारिक तनाव को जन्म दिया है। इसलिए, वैश्विक व्यापार को संतुलित और समावेशी बनाना ही आर्थिक स्थिरता का मार्ग हो सकता है।
1930 में अमेरिका ने स्मूट-हॉले टैरिफ लागू किया, जिसका उद्देश्य अमेरिकी उद्योगों की रक्षा करना था। लेकिन इसके उलट प्रभाव पड़ा। वैश्विक व्यापार में गिरावट आ गई। दुनिया भर के देशों ने जवाबी टैरिफ लगाए। पहले से ही आर्थिक मंदी से जूझ रही वैश्विक अर्थव्यवस्था और अधिक संकट में आ गई। अमेरिका और यूरोपीय देशों के बीच व्यापार प्रतिबंध बढ़े, जिससे आर्थिक सुधार की संभावनाएं कम हो गईं। 1945 के बाद, अमेरिका और यूरोप ने संरक्षणवाद को कम करने और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने के लिए GATT (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड) की स्थापना की। GATT और बाद में WTO (1995) ने टैरिफ में व्यापक कटौती को संभव बनाया। बीच-बीच में टैरिफ वॉर को लेकर मंद-मंद आवाजें उठती रही लेकिन इस बार मुखरता वास्तविकता में बदल गई। अमेरिका चीन, मैक्सिको समेत भारत पर दो अप्रैल से नए टैरिफ लगाने की घोषणा कर चुका है। जिसने दुनिया भर में माहौल गर्मा दिया है। हालांकि भारत-अमेरिका एक-दूसरे के हित को देखते हुए आपसी रजामंदी के साथ व्यापारिक समझौते के लिए आगे बढ़ रहे हैं। भारत के रुख से साफ है कि अभी अमेरिका से आने वाली कई अन्य वस्तुओं के शुल्क में कटौती की जा सकती है जो भारत के व्यापारिक हित में भी है। क्योंकि अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है और वैश्विक व्यापारिक परिस्थितियों को देखते हुए भविष्य में अमेरिका में भारत को अपने निर्यात बढ़ाने की बड़ी गुंजाइश दिख रही है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च का अनुमान है कि प्रस्तावित टैरिफ के कारण अगले वित्त वर्ष में देश के अमेरिका को निर्यात में 7.3 बिलियन डॉलर तक की गिरावट आ सकती है। दोनों देशों में टैरिफ वार शुरू होने का असर भारत के निर्यात पर होगा।
भारत विदेशी वस्तुओं पर बहुत अधिक शुल्क लगाता है, जो उदाहरण के लिए उन शुल्कों से कहीं अधिक है जो अमेरिका भारतीय आयातों पर लगाता है। ट्रंप द्वारा दी गई पारस्परिक शुल्क की धमकी के कारण, भारतीय कंपनियों के लिए अमेरिकी निर्यात पर शुल्क का भार काफी बढ़ सकता है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भले ही 2 अप्रैल से पहले कोई समझौता न हो, लेकिन भारत को वार्ता जारी रहने के कारण फिलहाल छूट मिल सकती है।
रॉयटर्स के एक विश्लेषण के अनुसार इस समझौते के पहले चरण में, भारत $23 बिलियन मूल्य की अमेरिकी वस्तुओं (जो कुल आयात का 55 प्रतिशत है) पर लगाए जाने वाले शुल्क को काफी हद तक कम करेगा। भारत विशेष रूप से कृषि उत्पादों, ऑटोमोबाइल, कीमती धातुओं और वस्त्रों पर उच्च शुल्क लगाता है। वर्तमान में, भारत का औसत भारित शुल्क दर 12 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका में यह केवल 2.2 प्रतिशत है। यह दर भारत को दुनिया के सबसे उच्च शुल्क लगाने वाले देशों में शामिल करती है।
हालांकि, जब अमेरिका-भारत व्यापार के विशिष्ट श्रेणियों को देखा जाता है, तो ये आंकड़े बदल जाते हैं, लेकिन अमेरिका पर लगने वाला शुल्क भार फिर भी भारत की तुलना में अधिक है। भारत अमेरिका को जितनी वस्तुएं निर्यात करता है, उसकी कीमत अमेरिका द्वारा भारत को भेजे जाने वाले सामानों से दोगुनी से अधिक है, फिर भी दोनों देशों ने 2024 में तुलनात्मक रूप से समान शुल्क का भुगतान किया।
भारत पर असर
दुनिया को होने वाले औसतन नुकसान (-0.27%) से भारत का नुकसान कम है, लेकिन फिर भी यह हानिकारक है। 0.16% की कमी सिर्फ GDP में कमी नहीं है। इसका असर नौकरियों पर पड़ सकता है, क्योंकि कंपनियां उत्पादन कम कर सकती हैं। इसका असर निवेश पर भी पड़ सकता है, क्योंकि निवेशक कम आत्मविश्वास महसूस कर सकते हैं। भारत विदेशी वस्तुओं पर बहुत अधिक टैरिफ लगाता है, जो अमेरिकी आयातों पर लगाए जाने वाले टैरिफ की तुलना में कहीं अधिक हैं। यदि ट्रंप द्वारा प्रस्तावित पारस्परिक टैरिफ लागू किए जाते हैं, तो इससे अमेरिका को निर्यात करने वाली भारतीय कंपनियों पर भारी कर बोझ बढ़ जाएगा। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यदि 2 अप्रैल से पहले कोई समझौता नहीं होता है, तो भी भारत को कुछ समय के लिए छूट मिल सकती है, क्योंकि वार्ता अभी जारी है। भारत कृषि उत्पादों, ऑटोमोबाइल, कीमती धातुओं और कपड़ा उद्योग पर विशेष रूप से उच्च टैरिफ लगाता है। वर्तमान में, भारत का औसत टैरिफ दर 12 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका में यह मात्र 2.2 प्रतिशत है। 2024 में, भारत ने अमेरिका को दोगुने से अधिक मूल्य की वस्तुएं निर्यात कीं, जितना अमेरिका ने भारत को भेजा, फिर भी दोनों देशों ने लगभग समान मात्रा में टैरिफ का भुगतान किया। भारत, अमेरिका को ज़्यादा सामान बेचता है, जबकि अमेरिका, भारत को कम सामान बेचता है।