बीते एक दशक में जलवायु परिवर्तन से चरम मौसम की घटनाओं में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। इसकी वजह से गर्मी, सर्दी और बारिश में अनियमितता बढ़ी है। इसका प्रभाव जहां एक तरफ आपदाओं की घटना में बढ़ोतरी के तौर पर पड़ा है तो दूसरी तरफ शारीरिक और आर्थिक क्षति में भी वृद्धि हुई है। आर्थिक सर्वे में भी कहा गया है कि एक डिग्री तापमान बढ़ने पर पूरी दुनिया की जीडीपी में 12 फीसदी तक की कमी देखी जाएगी। इसके अलावा बारिश में कमी होने का फर्क उत्पादकता और पोषण में भी देखने में आ रहा है। प्राकृतिक आपदा की वजह से लोगों का विस्थापन भी बढ़ा है।
बढ़ती गर्मी का असर जीडीपी पर
आर्थिक सर्वेक्षण 25-26 में एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि एक डिग्री तापमान बढ़ने पर पूरी दुनिया की जीडीपी में 12 फीसदी तक की कमी देखी जाएगी। वहीं एडवांसिंग अर्थ एंड स्पेस साइंस नामक एक अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी वैज्ञानिक संघ ने अपने अध्ययन में कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) प्रति वर्ष तीन प्रतिशत तक घट सकता है। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने के लिए लिए समावेशी और सतत विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों के लिहाज से भारत दुनिया का 7वां सबसे संवेदनशील देश है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत की संवेदनशीलता को देखते हुए, एक मजबूत रणनीति बनाए जाने की जरूरत है। सर्वे में कहा गया है कि वित्त वर्ष 16 से वित्त वर्ष 22 के बीच जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किए जा रहे खर्च में सकल घरेलू उत्पाद के 3.7 प्रतिशत से 5.6 प्रतिशत तक की वृद्धि विकास रणनीति में अनुकूलन और लचीलापन निर्माण की प्रमुख भूमिका को दर्शाती है। ग्रोथ एंड इंस्टीट्यूशनल एडवांसमेंट, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के निदेशक डॉ. ध्रुबा पुरकायस्थ कहते हैं कि “आर्थिक सर्वेक्षण भारत की एक मजबूत समग्र आर्थिक स्थिति की तस्वीर पेश करता है। निरंतर वृद्धि, कम चालू खाता घाटा, सुव्यस्थित पूंजीकृत बैंकिंग सिस्टम और स्थिर ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल निर्माण सहित प्रमुख संकेतक इस मजबूती की तरफ इशारा करते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में जारी संरचनात्मक बदलाव देश को एक विकसित देश ‘विकसित भारत’ बनने की दिशा में आगे बढ़ने में अतिरिक्त रूप से मददगार हैं। इस सकारात्मक आर्थिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, भारत 2030 से पहले अपने कार्बन उत्सर्जन को लेकर कर राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक अच्छी स्थिति में है। आर्थिक सर्वेक्षण में जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर मुद्दे पर ध्यान दिया जाना सामयिक और प्रासंगिक है। विशेष तौर पर, जलवायु से संबंधित आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और गंभीरता को देखते हुए। उम्मीद है कि बजट में भी इस चुनौती से निपटने के लिए कुछ नीतियों पर बात होगी।
कॉर्बन उत्सर्जन में आ रही कमी
आर्थिक सर्वे के मुताबिक देश में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन पुरी दुनिया के मुकाबले कम है, ये दिखाता है कि हम सही दिशा में काम कर रहे हैं। हालांकि, अक्षय ऊर्जा को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने में कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। खासकर ऊर्जा के भंडारण, प्रौद्योगिकी की कमी और खनिजों तक पहुंच की चुनौतियों के चलते हालात कई बार मुश्किल हो जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत की संवेदनशीलता को देखते हुए, एक मजबूत रणनीति बेहद आवश्यक है। वित्त वर्ष 16 और वित्त वर्ष 22 के बीच जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए खर्च में सकल घरेलू उत्पाद के 3.7 प्रतिशत से 5.6 प्रतिशत तक की वृद्धि विकास रणनीति में अनुकूलन और लचीलापन निर्माण की प्रमुख भूमिका को दर्शाती है। वहीं इस बीच जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय फंड का प्रवाह काफी अपर्याप्त रहा है। देश में इस दिशा में ज्यादातर काम घरेलू संसाधनों की मदद से किया जा रहा है। हाल ही में CoP29 के परिणाम इस मामले में बहुत कम आशाजनक हैं।
एनआरडीसी इंडिया के लीड, क्लाइमेट रेजिलिएंस एंड हेल्थ अभियंत तिवारी कहते हैं कि डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट से साफ हो जाता है कि आने वाले सालों में मुश्किल काफी बढ़ने वाली है। क्लाइमेट चेंज के चलते गर्मी के साथ ही आर्द्रता का स्तर भी बढ़ रहा है। इसके चलते हीट स्ट्रेस की स्थिति तेजी से बढ़ी है। सामान्य तौर पर 35 डिग्री से ज्यादा तापमान और हवा में उच्च आर्द्रता होने पर लोगों को सामान्य से ज्यादा गर्मी महसूस होती है। ऐसी स्थिति में हीट स्ट्रेस की स्थिति बनती है। बढ़ती हीटवेव जैसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार की ओर से अर्ली वॉर्निंग सिस्टम भी तैयार किया गया है। जिसके आधार पर सरकार उचित कदम उठाने के लिए अलर्ट जारी करती है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि ये सूचनाएं समय रहने सभी जिम्मेदार व्यक्ति तक पहुंच सकें और वो उचित कदम उठाएं। वहीं दूसरी सबसे बड़ी चिंता क्लाइमेट चेंज के चलते तापमान में आ रहा बदलाव के चलते बढ़ता बीमारियों का खतरा है। उदाहरण के तौर पर पहाड़ों के ठंडे मौस के चलते वहां पहले मच्छरों से फैलने वाली बीमारियां नहीं होती थीं। लेकिन वहां जलवायु परितर्वन के चलते तापमान बढ़ा और अब ये स्थिति हो रही है कि मच्छरों को पनपने के लिए वहां बेहतर पर्यावरण मिल रहा है। इससे वहां मच्छरों से होने वाली बीमारियां बढ़ी हैं। इस तरह की मुश्किलों को देखते हुए हमें अपने हेल्थ केयर सिस्टम को भी और मजबूत करना होगा। हमें कुछ ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि आपात स्थिति में तत्काल राहत पहुंचाने के लिए कदम उठए जा सकें।
बढ़ती गर्मी का मक्का, गेहूं, धान पर सबसे ज्यादा असर
बिहार कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर रिसर्च प्रोफेसर फिजा अहमद कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज ने कृषि पर बड़ा प्रभाव डाला है। इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं। उनके अनुमान के मुताबिक 2030 तक मक्के की फसल के उत्पादन में 24 फीसदी तक गिरावट की आशंका है। गेहूं भी इसकी वजह से काफी प्रभावित हो रहा है। वह बताते हैं कि अगर तापमान में चार डिग्री सेंटीग्रेड का इजाफा हो गया तो गेहूं का उत्पादन पचास फीसद तक प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा धान की पैदावार में भी गिरावट आ सकती है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के क्रॉप साइंस के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. टी.आर.शर्मा कहते हैं कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो असर हमारी थाली पर पड़ेगा। अगर हमें अपने खाने और फसलों को बचाना है तो अनुसंधान पर लगातार खर्च करना होगा। डॉ. शर्मा कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज का असर हर फसल पर पड़ रहा है। ठंड ज्यादा पड़ रही है, बारिश असमान हो रही है, इसका साफ असर फसलों पर देखने में आ रहा है। फसलों में नई-नई बीमारियां क्लाइमेट चेंज की वजह से हो रही हैं। बीते कुछ सालों में धान और मक्का की फसल पर इसका प्रभाव पड़ा है। हाल में हुई अधिक बारिश की वजह से पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में धान की काफी फसल बर्बाद हुई।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने देश के 573 ग्रामीण जिलों में जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि पर खतरे का आकलन किया है। इसमें कहा गया है कि 2020 से 2049 तक 256 जिलों में अधिकतम तापमान 1 से 1.3 डिग्री सेल्सियस और 157 जिलों में 1.3 से 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की उम्मीद है। इससे गेहूं की खेती प्रभावित होगी। गौरतलब है कि पूरी दुनिया की खाद्य जरूरत का 21 फीसदी गेहूं भारत पूरी करता है। वहीं, 81 फीसदी गेहूं की खपत विकासशील देशों में होती है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेज एंड वीट रिसर्च के प्रोग्राम निदेशक डॉ. पीके अग्रवाल के एक अध्ययन के मुताबिक तापमान एक डिग्री बढ़ने से भारत में गेहूं का उत्पादन 4 से 5 मीट्रिक टन तक घट सकता है। तापमान 3 से 5 डिग्री बढ़ने पर उत्पादन 19 से 27 मीट्रिक टन तक कम हो जाएगा। हालांकि बेहतर सिंचाई और उन्नत किस्मों के इस्तेमाल से इसमें कमी की जा सकती है।
मध्य प्रदेश में जबलपुर स्थित जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर एग्रोमेट्रोलॉजी डॉक्टर मनीष भान कहते हैं कि एक दशक पहले तक मार्च महीने में तापमान बढ़ना शुरू होते थे। इससे गेहूं की फसल को पकने में मदद मिलती थी। वहीं पिछले कुछ सालों में फरवरी में ही तापमान तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में गेहूं में दाने बनने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है। दाने छोटे रह जाते हैं और उत्पज घट जाती है। इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के इंफ्रो कॉप मॉडल और फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डिसिजन सपोर्ट सिस्टम फॉर एग्रो टेक्नॉलिजी ट्रांस्फर दोनों बताते हैं कि 2025 तक औसत तापमान डेढ़ डिग्री तक बढ़ सकता है। इससे 120 दिन वाली गेहूं की फसल 100 दिन में ही तैयार हो जाएगी। इससे दानों को मोटा होने का समय ही नहीं मिलेगा। गर्मी बढ़ने से पौधे में फूल जल्दी आ जाएंगे। ऐसे में फसल को दाना छोटा हो जाएगा और फसलें 120 दिन वाली फसल 100 दिन में ही तैयार हो जाएगी।
हर दशक औसत 1.22% घट रही मानूसन की बारिश, फसलों के लिए बढ़ा संकट
मौसम विभाग (IMD) के जर्नल मौसम में हाल में ही छपे एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि हर दशक में बारिश के दिनों में औसतन 0.23 फीसदी कमी दर्ज की गई है। ध्ययन के मुताबिक आजादी के बाद से अब तक देश में बारिश का समय लगभग डेढ़ दिन कम हो गया है। यहां बारिश के एक दिन का मतलब ऐसे दिन से है जिस दिन कम से कम 2.5 मिलीमीटर बारिश हुई हो। वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले एक दशक में एक्सट्रीम इवेंट्स भी काफी तेजी से बढ़े हैं।
आईएमडी जर्नल मौसम में प्रकाशित ये अध्ययन 1960 से 2010 के बीच मौसम के डेटा के आधार पर किया गया है। अध्ययन में पाया गया कि बारिश के लिए जिम्मेदार लो क्लाउड कवर देश में हर दशक में लगभग 0.45 फीसदी कम हो रहा है। खास तौर पर मानसून के दिनों में इनमें सबसे ज्यादा, 1.22 प्रतिशत कमी आई है। मौसम विभाग के अध्ययन के मुताबिक 1971 से 2020 के बीच आंकड़ों पर नजर डालें तो दक्षिण पश्चिम मानसून देश की कुल बारिश में लगभग 74.9 फीसदी की हिस्सेदारी रखता है। इसमें से जून महीने में लगभग 19.1 फीसदी बारिश होती है। वहीं जुलाई में लगभग 32.3 फीसदी और अगस्त में लगभग 29.4 फीसदी बारिश होती है। सितंबर महीने में औसतन 19.3 फीसदी बारिश दर्ज की जाती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी और बारिश में लगातार हो रही कमी भारतीय कृषि के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। हाल ही में हुए अध्ययनों से ये सामने आया है कि बारिश की कमी और कृषि उपज के बीच गहरा संबंध है। मौसम विभाग के डेटा के मुताबिक पिछले लगभग दो दशकों में बारिश में काफी कमी आयी है। ऐसे में आने वाले समय में फसलों के उत्पादन में भारी गिरावट का खतरा है। आर्थिक सर्वेक्षण में इस पर ध्यान आकर्षित करते हुए, विशेषज्ञों ने अगले कुछ दशकों में तापमान और वर्षा में बदलाव के संभावित प्रभावों को लेकर चेतावनी दी है। ऐसे में, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने और कृषि उत्पादकता को बनाए रखने के लिए सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करने की बात कही है। वहीं ऐसी फसलों के विकास पर जोर दिया है जो ज्यादा कर्मी सह सकें और जिन्हें कम पानी की जरूरत हो।
आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि कई अध्ययनों में साफ हो चुका है कि बारिश की कमी फसलों के उत्पाद को सीधे तौर पर प्रभावित करती है। दिग्विजय सिंह नेगी और भारत सामास्वामी की रिसर्चगेट में छपि एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बारिश में कमी और बढ़ती गर्मी के चलते 2099 तक वार्षिक तापमान में 2° तक की वृद्धि देखी जा सकती है, वहीं बारिश में 7 फीसदी की बढ़ोतरी से कृषि उत्पादकता में 8-12% तक की गिरावट देखने को मिल सकती है। ऐसे में हमें बेहतर सिंचाई के संसाधनों के विकास के साथ ही गर्मी, सूखे और बाढ़ जैसे हालात में उपज देने वाली फसलों का विकास अनिवार्य हो गया है। आईसीएआर की संस्था सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ड्राईलैंड एग्रीकल्चर के निदेशक डॉक्टर विनोद कुमार सिंह कहते हैं कि पिछले एक दशक में हम देखें तो बारिश के सीजन में कमी नहीं आई है लेकिन बारिश के दिनों में कमी आ गई है। पहले जहां हमें बारिश के तीन महीनों में 72 दिनों तक बारिश मिल जाती थी वहीं अब इनकी संख्या घट कर 42 हो गई है। ऐसे में इन दिनों में कई बार हमें अचानक और बहुत तेज बारिश देखने को मिलती है। इसके चलते फसलों को नुकसान पहुंचता है। बदलते मौसम को देखते हुए तमान तरह के प्रयास किए जा रहे हैं जिससे उत्पादन पर असर न हो। सबसे पहले तो किसानों को जागरूक किया जा रहा है कि वो फसलों के बुआई के समय, गर्मी और ज्यादा बारिश बरदाश्त कर सकने वाली फसलों, और फर्टलाइजर मैनेजमेंट के प्रति जागरूक हों। वहीं वैज्ञानिक लगातार ऐसी फसलों के विकास में लगे हैं जो जलवायु परिवर्तन को बर्दाश्त कर सकें। इसके अलावा ऐसी फसलों के विकास पर काम किया जा रहा है जिनकी बुआई के समय में लचीलापन हो। बारिश और गर्मी के आधार पर इनकी बुआई के समय बदलाव किया जा सके। वहीं बारिश के पैटर्न में बदलाव को देखते हुए एग्रोनॉमी तकनीकों को भी विकसित किया जा रहा है। वहीं मौसम में बदलाव को देखते हुए जमीन के आर्गेनिक कार्बन को बचाए रखने के लिए फसलों के अवशेष को खेतों में सड़ानें, ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करने आदि का भी काम किया जा रहा है। हालात को देखते हुए पहले ही लगभग 650 जिलों के लिए कंटीजेंसी प्लान बनाया जा चुका है। वहीं अब ब्लॉक आधार पर भी प्लान तैयार किए जा रहे हैं। आपात स्थित में इनके आधार पर किसानों को बेहतर फसल के लिए जागरूक किया जा सकेगा।
कृषि अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉक्टर ज्ञान प्रकाश मिश्रा कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते देश के कई इलाकों में कभी भारी बारिश हो जाती है तो कभी सूखा पड़ जाता है। इससे किसानों को बड़ा नुकसान होता है। हाल ही में सरकार ने जलवायु परिवर्तन को देखते हुए 109 नई उन्नत प्रजातियों के बीज मार्केट में उतारे हैं। अब फसलों की इस तरह की प्रजातियां तैयार की जा रही हैं कि एकदम से सूखा या बाढ़ की स्थति बने तो भी हमें कुछ उत्पादन मिलता रहे। फसल पूरी तरह से खत्म न हो। वहीं अनाज में पोषण की मात्रा को भी बढ़ाया जा सके। आज भी देश में एक ऐसा वर्ग है जो पोषण के लिए सिर्फ खाद्यान पर निर्भर है। जैव संवर्धित बीज इन लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं।
जून से सितंबर के बीच होती है इस तरह बारिश
मौसम विभाग के अध्ययन के मुताबिक 1971 से 2020 के बीच आंकड़ों पर नजर डालें तो दक्षिण पश्चिम मानसून देश की कुल बारिश में लगभग 74.9 फीसदी की हिस्सेदारी रहती है। इसमें से जून महीने में लगभग 19.1 फीसदी बारिश होती है। वहीं जुलाई महीने में लगभग 32.3 फीसदी और अगस्त महीने में लगभग 29.4 फीसदी बारिश होती है। सितंबर महीने में औसतन 19.3 फीसदी बारिश दर्ज की जाती है।
प्राकृतिक आपदाओं के कारण 2020 तक 1.4 करोड़ भारतीयों ने छोड़ा घर, 2050 तक 4.5 करोड़ होंगे बेघर
‘कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट इनएक्शन:डिस्प्लेसमेंट एंड डिस्ट्रेस माइग्रेशन’ रिपोर्ट में कहा गया है कि मौसम से जुड़ी आपदाओं की वजह से 2050 तक 4.5 करोड़ भारतीय अपनी जगहों से विस्थापित हो जाएंगे। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 तक 1.4 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, सूखा, समुद्री जलस्तर के बढ़ने, जल संकट, कृषि और इको-सिस्टम को हो रहे नुकसान के चलते लोग विस्थापन को मजबूर हैं।
2030 तक 22.5 मिलियन लोग विस्थापित हो जाएंगे
कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट इनएक्शन:डिस्प्लेसमेंट एंड डिस्ट्रेस माइग्रेशन रिपोर्ट में बांग्लादेश, भारत, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देशों को शामिल किया गया है। बांग्लादेश में घाटों से नदी का कटाव, भारत और पाकिस्तान में बाढ़, नेपाल में पिघलते ग्लेशियर, भारत और बांग्लादेश में उफनते समुद्र, श्रीलंका में चावल और चाय के बागान वाले इलाकों में सामान्य से अधिक वर्षा और साइक्लोन इसके लिए जिम्मेदार हैं। प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका की वजह से घर, संपत्ति, बिजनेस, समुदाय आदि तबाह होते जा रहे हैं। दक्षिण एशियाई मौसम की अत्यधिक प्रतिकूल परिस्थितियों की वजह से हर साल जान-माल का नुकसान होता है।