नई दिल्ली
जिनेवा में दो दिनों की वार्ता के बाद अमेरिका और चीन ने 12 मई को अस्थायी ‘व्यापार युद्ध विराम’ (US-China Deal) का ऐलान किया। इसके तहत बुधवार, 14 मई से 90 दिनों के लिए दोनों देशों ने अधिकांश वस्तुओं पर टैरिफ में भारी कमी कर दी है। चीन से आयात पर अमेरिकी टैरिफ 145% से घटकर 30% हो गया है। चीन ने भी अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क को 125% से घटाकर 10% कर दिया है। हालांकि स्टील, एल्युमीनियम और ऑटोमोबाइल को इस ‘युद्ध विराम’ से बाहर रखा गया है।
इन 90 दिनों में दोनों देश व्यापार शर्तों पर बात करेंगे। टैरिफ घटाने के अलावा चीन कुछ नॉन-टैरिफ बाधाएं कम करेगा। इसमें क्रिटिकल रॉ मैटेरियल निर्यात की अनुमति देना शामिल है। अमेरिका ने भी समझौते से इतर, चीन से कम वैल्यू वाले (800 डॉलर तक) ईकॉमर्स आयात पर टैरिफ 120% से घटाकर 30% करने का निर्णय लिया है। विशेषज्ञ दोनों देशों के इस रोलबैक को उम्मीद से अधिक बता रहे हैं। वे इसे ग्लोबल सप्लाई चेन में एक टर्निंग पॉइंट के तौर पर भी देख रहे हैं।
चीन-अमेरिका डील का भारत पर असर
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2 अप्रैल को जो रेसिप्रोकल टैरिफ की घोषणा की थी (जिसे 9 अप्रैल को 90 दिनों के लिए स्थगित किया गया), उसमें अन्य देशों के साथ भारत पर 26%, वियतनाम पर 46% और थाईलैंड पर 36% टैरिफ लगाया गया था। दूसरी ओर चीन पर टैरिफ बढ़कर 145% हो गया था। ऐसे में ये देश चीन की तुलना में एडवांटेज की स्थिति में आ गए थे और अपने यहां मैन्युफैक्चरिंग हब का विस्तार करने की योजना पर काम कर रहे थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘चाइना प्लस वन’ रणनीति के तहत इन देशों को हाल के वर्षों में निवेश का फायदा मिला है।
लेकिन नई डील के बाद स्थिति काफी बदल गई है। अब चीन पर 30% टैरिफ वियतनाम और थाईलैंड की तुलना में कम है। भारत के साथ भी सिर्फ 4% का अंतर रह गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि जो कंपनियां चीन से बाहर अपनी सप्लाई चेन स्थापित करने की योजना बना रही थीं, वे फिलहाल आगे नहीं बढ़ेंगी। अमेरिका-चीन डील से भारत, वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों पर अमेरिका के साथ बेहतर डील करने का दबाव रहेगा।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव (GTRI) के संस्थापक अजय श्रीवास्तव का कहना है कि अमेरिका एक बार फिर चीन की ओर झुक रहा है। यह भारत के सप्लाई चेन के लिए अच्छा नहीं है। वे कहते हैं, “भारतीय वस्तुओं पर अभी अमेरिका ने 10% टैरिफ लगा रखा है, जो चीनी आयात पर 30% टैरिफ से बहुत कम है। लेकिन भारत के पक्ष में जो विशाल टैरिफ अंतर था, वह तेजी से कम हो रहा है। थोड़े समय पहले ही अमेरिका ने चीनी वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाकर 145% तक कर दिया था। इससे चीन से निकलने की इच्छुक कंपनियों को आकर्षित करने में भारत को बड़ी बढ़त मिली थी। अब यह बढ़त कम हो गई है। वैश्विक निवेशकों के लिए संदेश स्पष्ट है- वॉशिंगटन फिर से बीजिंग के साथ जुड़ रहा है।”
श्रीवास्तव के अनुसार, “इस बदलाव से ‘चाइना प्लस वन’ रणनीति कमजोर होने का जोखिम है, जिसके तहत कंपनियां अपनी मैन्युफैक्चरिंग चीन से निकाल कर भारत, वियतनाम और मेक्सिको में स्थानांतरित कर रही थीं।”
राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान मार्च 2018 में चीन के साथ टैरिफ युद्ध शुरू किया था। तब भी व्यापार घाटा कम करने, मैन्युफैक्चरिंग को अमेरिका में वापस लाने और चीन की औद्योगिक प्रगति को धीमा करने का वादा किया गया था। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इसके विपरीत टैरिफ ने अमेरिकी बिजनेस को नुकसान पहुंचाया, उपभोक्ताओं के लिए महंगाई बढ़ गई, ग्लोबल सप्लाई चेन बाधित हुई तथा अमेरिका का व्यापार घाटा और बढ़ गया।
श्रीवास्तव के मुताबिक, “वही पैटर्न फिर दोहराया गया है। ट्रंप ने जनवरी 2025 में चाइनीज वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाना शुरू किया और इसे 245% तक ले गए। अब आर्थिक दबाव में उन्हें वापस ले रहे हैं। अब अमेरिका-चीन के बीच 660 अरब डॉलर की ट्रेड पाइपलाइन फिर खुल गई है और ग्लोबल सप्लाई चेन पर दबाव कम हुआ है।”
वे कहते हैं, “जैसे-जैसे टैरिफ गैप कम होता जाएगा, भारत, वियतनाम या मेक्सिको जैसी जगहों पर उत्पादन स्थानांतरित करने वाली कंपनियां चीन लौट सकती हैं। ‘चाइना प्लस वन’ रणनीति बिना शोर-शराबे के खत्म हो सकती है। जिस विविधीकरण के उद्देश्य से टैरिफ युद्ध शुरू किया गया था, वह भी रुक सकता है। इसके अलावा और कुछ नहीं बदला है। व्यापार असंतुलन को ठीक करने या अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग को दोबारा खड़ा करने का कोई स्पष्ट रास्ता नहीं दिख रहा है। यह बस एक अल्पकालिक समाधान है।”
निर्यातकों के संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गनाइजेशन (फियो) के अध्यक्ष एस.सी.रल्हन मानते हैं कि यह घटनाक्रम वैश्विक व्यापार स्थिरता के लिए मोटे तौर पर सकारात्मक है, लेकिन यह भारत के लिए चुनौतियां और अवसर दोनों प्रस्तुत करता है।
एक बयान में उन्होंने कहा, “टैरिफ में कमी से इलेक्ट्रॉनिक्स, मशीनरी और रसायनों जैसे उच्च-मूल्य वाले क्षेत्रों में अमेरिका-चीन द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि होने की संभावना है। इससे दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे बाजारों में भारतीय निर्यातकों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ सकती है, जहां भारत ने हाल ही में अमेरिका-चीन व्यापार व्यवधानों का लाभ उठाते हुए अपनी पैठ बनाई है।”
यह पूछने पर कि भारत और वियतनाम जैसे देश चीन-प्लस-वन रणनीति से जो लाभ उठा रहे थे, क्या वे चीन पर बढ़त खो देंगे, जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में विजिटिंग स्कॉलर और अशोका यूनिवर्सिटी में विशिष्ट फेलो अजय छिब्बर ने कहा, “हां, उन्हें जो लाभ होता, वह अब बहुत कम होगा।”
भारत के लिए क्या करना उचित
GTRI के अजय श्रीवास्तव के अनुसार, कम निवेश वाले असेंबली ऑपरेशंस अभी भारत में ही रह सकते हैं, लेकिन वास्तविक औद्योगिक इकोसिस्टम के लिए जरूरी गहन मैन्युफैक्चरिंग रुक सकता है या वापस चीन जा सकता है। निवेशक चीन की तरफ अमेरिका के झुकाव पर नजर रख रहे हैं। जब तक भारत प्रतिस्पर्धात्मक लाभ हासिल नहीं कर लेता, तब तक वे यहां निवेश करने में संकोच करेंगे। उनकी राय में, “अमेरिका के साथ एक स्मार्ट ट्रेड डील करनी पड़ेगी जिससे भारत पर 10% टैरिफ का स्तर प्रस्तावित 26% तक न पहुंचे।”
अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते (BTA) पर भारत की बात चल रही है। श्रीवास्तव के मुताबिक, “यह डील जल्दी होने की संभावना है। ट्रंप ने कहा है कि भारत अधिकतर वस्तुओं पर टैरिफ घटाने पर राजी हो गया है। ट्रंप हमेशा व्यापार घाटे के लिए भारत के ऊंचे टैरिफ को दोष देते रहे हैं। भारत समझौते के पहले दिन से ‘जीरो फॉर जीरो’ अप्रोच के तहत अमेरिका से 90% आयात को टैरिफ-मुक्त कर सकता है। ऑटोमोबाइल और कृषि को इससे बाहर रखा जा सकता है। लेकिन यह डील बराबरी की होनी चाहिए। दोनों पक्ष को टैरिफ समान रूप से खत्म करना चाहिए।”
श्रीवास्तव कहते हैं, “व्यापार नीति से परे भारत को उत्पादन लागत में कटौती, लॉजिस्टिक्स में सुधार और रेगुलेटरी व्यवस्था में बदलाव करना चाहिए। भविष्य में मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर बातचीत में भारत को सार्थक लाभ के बिना ऑटोमोबाइल और फार्मास्यूटिकल्स जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को खोलने के दबाव का विरोध करना चाहिए।”